किशनगंज (बिहार)- इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 12वें महीने की 10 तारीख को बकरीद या ईद-उल-जुहा मनाई जाती है। ईद-उल-अजहा जिसे बकरीद के नाम से भी जाना जाता है,यह मुस्लिम समाज का महत्वपूर्ण त्योहार है।पूरे विश्व के मुस्लिम समुदाय ईद-उल-अजहा को त्याग और बलिदान का त्योहार मनाते है। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक 12वें महीने की 10 तारीख को बकरीद या ईद-उल-जुहा मनाई जाती है। बकरीद रमजान माह के खत्म होने के लगभग 70 दिनों के बाद मनाई जाती है। बता दें मीठी ईद के बाद यह इस्लाम धर्म का प्रमुख त्योहार है। इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार हजरत इब्राहिम ने अपने बेटे हजरत इस्माइल को इसी दिन खुदा के हुक्म पर खुदा की राह में कुर्बान किया था। ऐसा माना जाता है कि खुदा ने उनके जज्बे को देखकर उनके बेटे को जीवनदान दिया था।
हजरत इब्राहिम को 90 उम्र की आयु में एक बेटा हुआ जिसका नाम उन्होंने इस्माइल रखा एक दिन अल्लाह ने हजरत इब्राहिम को अपने प्रिय चीजों को कुर्बान करने का हुक्म सुनाया। इसके बाद एक दिन दोबारा हजरत इब्राहिम के सपने में अल्लाह ने उनसे अपने सबसे प्रिय चीज की कुर्बानी देने को कहा तब इब्राहिम ने अपने बेटे की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। हजरत इब्राहिम को लग रहा था कि कुर्बनी देते वक्त उनकी भावनाएं उनकी राह में आ सकती हैं। इसलिए उन्होंने अपनी आंख पर पट्टी बांध कर कुर्बानी दी उन्होंने जब अपनी आंखों से पट्टी हटाई तो उन्हें अपना बेटा जीवित नजर आया। वहीं कटा हुआ दुम्बा (सउदी में पाया जाने वाला भेड़ जैसा जानवर) पड़ा था। इसी वजह से बकरीद पर कुर्बानी देने की प्रथा की शुरुआत हुई।
बकरीद को हजरत इब्राहिम की कुर्बानी की याद में मनाया जाता है। इसके बाद इस दिन जानवरों की कुर्बानी दी जाने लगी।बकरीद पर मुस्लिम समुदाय के लोग एक साथ मस्जिद या ईदगाह में अल सुबह की नमाज अदा करते हैं। हालांक इस वर्ष कोरोना के मद्देनजर अपने अपने घरों अथवा मस्जिदों में नमाज अदा करेंगे। इसके बाद बकरे की कुर्बानी दी जाती है। कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है एक हिस्सा गरीबों, दूसरा रिश्तेदारों और तीसरी हिस्सा अपने लिए रखा जाता है।
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