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ब्लैकआउट बनाम लॉकडाउन की कहानी पर एक विशेष रिपोर्ट प्रोफेसर डॉ सजल प्रसाद की कलम से।

डॉ सजल प्रसाद 
ब्लैकआउट बनाम लॉकडाउन की कहानी पर एक विशेष रिपोर्ट प्रोफेसर डॉ सजल प्रसाद की कलम से।

  किशनगंज- वर्ष 1971 की बात है जब भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था और युद्ध का मैदान किशनगंज शहर से महज 30 किमी दूर तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बांग्लादेश है, में बना था। शहर के इतने नजदीक युद्ध होने से किशनगंज में सेना की टुकड़ियां कैम्प किये हुए थी। युद्ध को लेकर कई तरह की आशंकाएं यहां लोगों में रहती थीं। उन दिनों एकमात्र रेडियो ही ताजा सूचना प्रसारण का माध्यम था। 
  अंधेरा होते ही अचानक जब घों..घों...घों की कर्कश आवाज के साथ सायरन बज उठता था तो घरों में रहने वाले लोग हड़बड़ा कर स्विच बोर्ड की तरफ भागते थे और एक-एक कर सारे जलते बल्ब ऑफ कर दिए जाते थे। यदि किसी के घर में लालटेन या ढिबरी भी जलती थी तो उसे भी बुझा दिया जाता था। इतनी देर में बिजली विभाग के कर्मचारी या आसपास के लोग स्ट्रीट लाइट भी ऑफ कर देते थे । यानी पूरे शहर में ब्लैकआउट हो जाता था।
इस दौरान घरों में सब बंद हो जाते थे। उत्सुकतावश खिड़की या दरवाजे से बाहर झांकने वाले बच्चों को घर के बुजुर्ग परिस्थिति जन्य गुस्से से दो-चार थप्पड़ रसीद कर घर के भीतर धकेल देते थे। खटाखट ...खटाखट की आवाज के साथ खिड़की और दरवाजे बंद हो जाते थे। सड़क में वीरानी और घरों में जैसे मुर्दनी छा जाती थी।
           उन दिनों मेरी उम्र आठ साल थी और मैं कक्षा तीन में पढ़ता था। मेरे घर से कोई 100 मीटर की दूरी पर गोसवारा भवन/मनोरंजन क्लब भवन की छत पर उस युद्ध के समय सायरन लगाया गया था। शहर के दूसरे हिस्से में भी सायरन लगाए गए थे। साँझ के बाद अंधेरे की चादर पसरती और अक्सर सायरन बज जाता और लोग सारी बत्तियां बुझाने में लग जाते।
       " यह ब्लैकआउट क्या होता है ? " - जिज्ञासावश मैंने अपने दादाजी से पूछा था।
"दुश्मन देश पाकिस्तान के किसी बम-वर्षक विमान के जब हमारे क्षेत्र के आसमान में उड़ने की खबर मिलती है तो जमीन पर घरों व सड़कों की बत्तियां गुल कर ब्लैकआउट किया जाता है।" दादा जी ने समझाया था। "परंतु, ब्लैकआउट क्यों किया जाता है " -  दादाजी की बात समाप्त होते ही मैंने दूसरा प्रश्न दाग दिया था।
"ब्लैकआउट इसलिए किया जाता है कि दुश्मन देश के  हवाईजहाज को नीचे आबादी होने का अनुमान न लग सके और पायलट बम नहीं गिरा सके !" - दादा जी का जवाब सुनकर मैंने ठंडी सांस ली थी। उसके बाद से ही सायरन जब भी बजता, मैं भाग-भागकर सभी कमरों की लाइट बुझा देता था। यहां तक कि माँ से जलता चूल्हा भी बुझाने को कहता था। ऐसा कई महीनों तक चला था।
          यह प्रसंग इसलिए याद आ गया कि इन दिनों  कोविड-19 वायरस के कारण कोरोना महामारी फैलने की आशंका बलवती होती जा रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र दास दामोदर मोदी ने पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन घोषित किया है। इस लॉकडाउन में दिन के 11 बजे के बाद तो शहर में कर्फ्यू जैसा ही दृश्य हो जाता है। लोग डरे-सहमे दीखते हैं। अदृश्य दुश्मन कोरोना के वार से बचने-बचाने की कवायद में डॉक्टर, नर्स, पारा मेडिकल स्टाफ, सफाईकर्मी, डीएम, एसपी सहित जिला प्रशासन के अधिकारी-कर्मचारी व पुलिस महकमे के जवान तथा एनजीओ के स्वयंसेवी लोगों को लगातार जागरूक कर रहे हैं। परंतु, यह खतरा अभी बरकरार है।
लोग घरों में बंद रहने को मजबूर हैं। निराशा के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी जी का 130 करोड़ देशवासियों से रविवार को रात के 9 बजे 9 मिनट तक मोमबत्ती, दीया, टॉर्च, मोबाइल की फ्लैशलाइट जला कर सामूहिकता के स्तर पर आत्मविश्वास जगाने का आह्वान स्वागतयोग्य है। यह आह्वान सामूहिक रूप से कोरोना-युद्ध में विजयी बनकर निकलने की प्रेरणा देता है।
       

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