किशनगंज (बिहार)- प्रणब मुखर्जी भारतीय राजनीति में एक ध्रुव तारे के जैसे रहे। पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के मिराती नाम के छोटे से गांव से दिल्ली दरबार पर अपनी अमिट छाप छोड़ने की उनकी यात्रा हर किसी को लुभाती है। हर संघर्ष करने वाले युवा को प्रेरणा देती है। प्रणब मुखर्जी अपनी आत्मकथा के प्रस्तावना में अपनी इस यात्रा के बारे में बेहद रोमांचक तरीके से वर्णन करते हैं। यह उस युवक की कथा है जो पश्चिम बंगाल के एक सुदूर गांव के टिमटिमाते दीपक से भारत की राष्ट्रीय राजधानी के चमचमाते फानूसों तक आ पहुंचा-एक ऐसी लंबी यात्रा, जो कुछ सफलताओं कुछ निराशाओं और आकर्षक मुठभेड़ों के मेल से बनी है।
प्रणब दा का अपने बारे में ये कथन ही साबित करने के लिए काफी है कि दिल्ली की सत्ता के शिखर तक वे गांव के बेहद ऊबड़ खाबड़ मैदानों से होकर पहुंचे थे। कांग्रेस पार्टी के भीतर और बाहर हर जगह उनका सम्मान किया जाता था। वर्तमान दौर में उन्हें भारतीय राजनीति का भीष्म पितामह कहा जाता था। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक उन्हें सम्मान से प्रणव दा कहकर ही संबोधित किया जाता था। उनकी स्वीकार्यता का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके राजनीतिक विरोधी रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रणब दा को पिता समान बताया था।
प्रणब दा अपने गांव मिराती को लेकर बेहद संजीदा थे। वे अपने ऑटोबायोग्राफी में मिराती गांव के बारे में बेहद भावुक होकर लिखते हैंं। खासकर 11 दिसंबर को जब उनका जन्म दिन होता तो उन्हें अपने गांव और मां की बहुत याद आती थी। वे खुद ही बताते हैं कि 11 दिसंबर को मेरे विचार मुझे कहीं दूर ले जाते हैं। मेरे आसपास का तत्कालीन परिवेश–राजधानी की व्यस्त कार्यप्रणाली, साउथ ब्लॉक, नॉर्थ ब्लॉक और इनसे भी परे सुदूर-सब मेरे मस्तिष्क में अस्पष्ट हो जाते हैं। इनकी बजाए मैं पेड़ों के झुरमुट, कच्ची पगडंडियां और कच्चे घर देखने लगता हूं। मुझे मां के हाथों की बनी खीर की महक की याद आती है। मेरा मन मिराती गांव की ओर उड़ चलता है, जहां मैं पला बढ़ा।
प्रणब दा पढ़ाई में विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने वीरभूम के सूरी विद्यासागर कॉलेज में शिक्षा पाई थी। ये कॉलेज कलकत्ता यूनिवर्सिटी से जुड़ा था। प्रणब दा ने इतिहास और राजनीति विज्ञान से एमए किया था। उन्होंने कानून की डिग्री भी हासिल की थी। वे एक वकील और कॉलेज में प्रोफेसर भी रह चुके हैं। पहले तो उन्होंने कॉलेज में प्रोफेसर के तौर पर अपने कैरियर की शुरूआत की थी। बाद में वे पत्रकारिता में ज्यादा रूचि लेने लगे। प्रणब दा ने देशेर डाक यानी मातृभूमि की पुकार नाम के प्रकाशन से जुड़े थे।
भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मदद से प्रणब दा ने साल 1969 में राजनीति में प्रवेश किया था। प्रणब दा को कांग्रेस की टिकट पर राज्यसभा के लिए चुना गया। अपनी प्रतिभा से धीरे धीरे कर प्रणब दा, इंदिरा गांधी के चहेते बन गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद राजीव गांधी के हाथों में देश की बागडोर सौंप दी गई। इस घटना ने ना केवल कांग्रेस को लंबे समय तक प्रभावित किया बल्कि खुद प्रणब दा की राजनीति भी एक अलग मोड़ पर पहुंच गई। राजीव गांधी और उनके इर्द गिर्द रहने वाले कुछ नेताओं से कई मुद्दों पर प्रणब दा सहमत नहीं थे। यही वजह थी कि कांग्रेस पार्टी से प्रणब मुखर्जी को बाहर का दरवाजा दिखा दिया गया। प्रणब मुखर्जी ने उस दौरान राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस नाम से पार्टी भी बना ली लेकिन 1989 में राजीव गांधी से समझौता होने के बाद प्रणब दा एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हो गए।
पी वी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री बनने से प्रणब दा को एक बार फिर तवज्जो मिलना शुरू हो गया। 1991 में उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद नरसिम्हा राव ने 1995 में उन्हें कैबिनेट मन्त्री के तौर पर नियुक्त करने का फैसला लिया गया। ये प्रणब दा की क्षमता ही थी कि उन्हें विदेश मंत्रालय जैसा महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो सौंपा गया। आगे चलकर सोनिया गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही थी। प्रणब दा सोनिया गांधी के प्रमुख परामर्शदाताओं में से रहे थे। जब सोनिया गांधी किसी कठिन परिस्थिति में फंस जाती थीं तो प्रणब मुखर्जी उन्हें उनकी सास इंदिरा गांधी के उदाहरणों के जरिए बताते थे कि आखिर कैसे इंदिरा गांधी इस तरह के हालात से निपटती थीं। 2004 में सत्ता में वापस आने के बाद यूपीए में प्रणब दा को अहम जिम्मेदारी सौंपी गई। 2004 से 2006 तक प्रणब मुखर्जी को रक्षा मंत्री बनाया गया तो 2006 से 2009 तक प्रणब दा के जिम्मे विदेश मंत्रालय सौंप दिया गया। विदेश मंत्री के तौर पर उन्होंने भारत का अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते करवाया। ये उनकी सबसे बड़ी विरासत कही जा सकती है। इस एक दो तीन समझौते से परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं करने के बावजूद। भारत न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप के साथ समझौता करने में सफल रहा यानी प्रणब दा ने भारत को न्यूक्लियर अपार्थिड से मुक्ति दिलवा दी।
2012 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए ने प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति कैंडिडेट घोषित किया। उन्होंने इस चुनाव में जीत हासिल की और 25 जुलाई 2012 को राष्ट्रपति पद की शपथ ली। 2012 से 2017 के कार्यकाल में प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति भवन में अपनी अमिट छाप छोड़ी। पचास साल से लंबे कार्यकाल में उन्होंने भारत की तन और मन से सेवा की। उनकी इसी सेवा को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने 26 जनवरी 2019 को प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया।
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