धान रोपाई करती महिला मजदूरदल। |
शशिकांत झा |
आज खेतों में धान रोपाई करने में लगी महिलाऐं और पुरुषों की टोलियों पर विचित्र महामारी कोरोना का कोई असर नहीं हैं। प्रकृति के नियमानुसार धान रोपनी में लगे किसान -मजदूर अपनी "पाहिंयों " के हिसाब से पूर्णतः सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते दिख जाते हैं ।साफ तौर पर पाहीं आर्थात जिसके हिस्सों में जितनी दूरियां उसकी पूरी जिम्मेदारी उसकी ।इसे प्राकृतिक नियम नहीं कहें तो और क्या? जिले के विभिन्न क्षेत्रों में जहाँ मक्के की खेती के बाद किसान समर्थन मूल्यों की गुहार लगा रही है।
वहीं बरसात के पहले आ जाने से और मौसम की बेरुखी ने किसानों की ऐसी हालतें की -कि कहने को शब्द नहीं है ।दो हजार रुपये क्वींटल मकई बेचकर कुछ पुंजी जुटाने की आश में लगे किसान आज खून के आंसू रोते देखे जा सकते हैं ।हजार ,ग्यारह सौ रुपये प्रति क्वींटल पर भी मक्के के लिवाल नहीं के बराबर हैं ।जबकि मौसम की मार और धूप के अभाव में मक्के या तो बाली में या फिर तैयार होकर सड़ रहे हैं ।कई जगहों पर तो पानी से फूले मक्कों में पौधे भी उग आये हैं ।जो बचे हैं वे फसल सुनहले से काले रंगों के हो चुके हैं ।ऐसे में जिले के किसानों ने सीने पर पत्थर रख अभी धान रोपाई में लग चुके हैं ।जहाँ पुरानी कहावतें भी है कि आद्रा में लगे धान की उपज काफी अच्छी होती है
।तो किसान मक्के का रोना छोड़ अब धान की अच्छी फसलों के सपनों को साकार करने में लग चुके हैं।
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